(२) साहित्य की कृत्रिम प्राकृत के पुराने शब्दों को उसी प्रकार स्थान देने से जिस प्रकार पीछे हिंदी कविता में तत्सम संस्कृत शब्दों को स्थान दिया जाने लगा। उद्धृत कविताओं में स्वर्ग का ‘सग्गर, विद्याधर का 'विजाहर', नीप का ‘णीव', मन्मथ का 'बम्मह', लोक का 'लोय' प्राकृत की रूढ़ि के अनुसार है। इसी प्रकार प्राकृत से 'पयोहर' (पयोधर), 'महुअर' (मधुकर), रूअ (रूप), कइ (कवि), मिश्रणप्रणी (मृगनयनी) आदि शब्द ज्याँ के त्याँ ले कर रखे जाते थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये बोलचाल के शब्द नहीं थे। बिना साहित्य की प्राकृत पढ़े न कोई कवि पंडित कहलाता था, न उसकी कविता शिष्ट समझी जाती थी । इसी कारण अपभ्रंश की कविता में भी ऐसे ऐसे वाक्य देखने में आते हैं- रे धणि, मत्त-मअंगज-गामिणि खंजन-लोअणि चंदमुही। इसे उसी प्रकार उस समय की भाषा न समझना चाहिए जिस प्रकार “सुरम्यरूपे, रसराशिरंजिते !" को आजकल की। इस प्रकार देश की ठीक ठीक बोलचाल की भाषा बराबर दबी सी रही, उभर कर भोजपत्र, तालपत्र, ताम्रपत्र या काग़ज़ पर न आने पाई। कवि लोगों की वाणी सर्वसाधारण की वाणी से भिन्न रही। अपभ्रंश-काल की प्राचीन हिंदी में सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि उस में एक भी संस्कृत शब्द न मिलेगा। साहित्य की कृत्रिम प्राकृत के शब्द पढ़े लिखे लोगों के शब्द समझे जाते रहे और काव्यों में वही , क
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