काम देते रहे जो पीछे संस्कृत के शब्द इने लगे। पृथ्वीराज
रासो का यदि कुछ अंश भी अमली माना जाय तो यह कहा
जा सकता है कि उसकी रचना-काल में काव्यभाषा में संस्कृत
शब्दों का मिलना प्रारंभ हो चुका था यद्यपि चारणों की परं-
परा में प्राकृत-मिली भाषा हम्मीरदेव के समय तक चलती
रही और राजपूताने में शायद अब तक थोड़ी बहुत चली
चलती है। पर यही कहना चाहिए कि चंद कवि के पीछे
प्राकृत के शब्द-जो संस्कृत की अपेक्षा कहीं ज्यादा नकली थे--
क्रमशः निकलते गए और धराऊ शब्दों का सजावटी काम
संस्कृत शब्द ही देने लगे। प्राकृत का पठन पाठन उठ गया।
प्राकृत केवल साहित्य की भाषा थी । उसमें 'गत' का भी गया
और 'गज' का भी ‘गय', 'मोक्ष' का भी 'मुक्ख' और 'मूर्ख' का
भी 'मुक्ख' होने से अर्थबोध में कठिनाई पड़ने लगी ।। इस
प्रकार विचार करने से हिंदी काव्यभाषा के दो बहुत ही स्पष्ट
काल दिखाई पड़ते हैं-प्राकृत-काल और संस्कृत-काल ; अर्थात्
एक वह काल जिसमें भाषा की सजावट के लिए प्राकृत के
शब्द लाए जाते थे, दूसरा वह काल जिसमें संस्कृत के शब्द
लिए जाने लगे।
संस्कृत-काल
संस्कृत-काल की काव्यभाषा में भी परंपरागत प्राकृत के
कुछ पुराने शब्दों को कवि लोग बराबर लाते रहे । भुवाल
(भूपाल ), सायर (सागर), दीह ( दीर्घ), गय (गज ),
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