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सुमिरि देवन उठति हौं नित उवत दिन, भगवान्!
न्हाय धोय कराय पूजन देति हौँ कछु दान।
काज में लगि ओप दासिन देति सकल लगाय।
जात योँ मध्याह्न ह्वै; पतिदेव मेरे आय
सीस मेरी जानु पै धरि परत पावँ पसारि;
करौं बीजन पास बसि मुखचंद्र तासु निहारि।
आय जब घर माहिं भोजन करन बैठत राति
ठाढ़ि परसति ताहि व्यंजन लाय नाना भाँति।
रसप्रसंग उठाय बहु कछु बेर लौँ बतराय
फेरि सुख की नींद सोवति शिशुहि अंक बसाय।
और सुख अब कौन चहिए मोहिं या जग माहिँ?
रही प्रभु की दया सों कछु कमी मोको नाहि।
पुत्र दै निज पतिहि अब मैं भई पूरनकाम,
जासु कर को पिंड लहि सो भोगिहै सुरधाम।
धर्मशास्त्र पुराण भाखत, हरत जे परपीर;
पथिक छाया हित लगावत पेड़ जे पथतीर,
जे खनावत कूप, छाँड़त पुत्र जे कुल माहिँ
सुगति लहि ते जात उत्तम लोक, संशय नाहिँ"