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कह्यो ग्रंथन माहिं जो जो चलति हौँ सौ मानि,
सकौँ मैं तिन मुनिन सोँ बढ़ि बात कैसे जानि
होत सम्मुख रहे जिनके देवगण सब आय,
गए जे बहु मंत्र और पुराण शास्त्र बनाय,
धर्म को जे तत्त्व जानत रहे पूर्ण प्रकार,
शांति को जिन मार्ग खोज्यो त्यागि विषय-विकार?
बात मैं यह जानती सब काल में सब ठौर
भले को फल शुभ, बुरे को अशुभ है, नहिँ और।
लहत हैँ फल मधुर नीके बीज को सब बोय
औ विषैले बीज को फल अवसि कडुवा होय।
लखत इत ही, बैर उपजत द्वेष सोँ जा भाँति,
शील सोँ मृदु मित्रता औ धैर्य सोँ शुचि शांति।
जायहैँ, तन छाँड़ि जब तब कहा ह्वैहै नाहिँ
भलो वाहू लोक में ज्योँ होत है या माहिँ?
होयहै बढ़ि के कहूँ-ज्योँ परत है जब खेत
धान को कन एक, अंकुर फैँकि सहसन देत।
सकल चंपक को सुनहरो वर्ण औ विस्तार
रहत बिंदी सी कलिन में लुको पूर्ण प्रकार।