दीर्घआयु-कामना तथा जीबे हित संगर,
पातक संगरजनित, कोउ कटु, कोऊ रुचिकर।
या विधि तृष्णा बुझति सदा इन घूँटन पाई
जो वाको करि दूनी औरहु देत बढ़ाई।
पै ज्ञानी हैं दूर करत मन सोँ या तृष्णहिँ,
झूठे दृश्यन सोँ इंद्रिन को तृप्त करत नहिँ।
राखत मन दृढ़ विचलि न काहू ओर डुलावत
करत जतनजंजाल नाहिँ नहिँ दुख पहुँचावत
पूर्वकर्म अनुसार परत जो कछु तन ऊपर
सो सब हैं सहि लेत अविचलित चित्त निरंतर।
काम, क्रोध, रागादि दमन सबको करि डारत,
दिन दिन करि कै छीन याहि बिधि तिनको मारत।
अंत माहिँ योँ पूर्वजन्म को सार भारमय,
जन्म जन्म को जीवात्मा को जो सब संचय-
मन में जो कछ गुन्यो और जो कीनो तन सोँ,
अहंभाव को जटिल जाल जो बिन्यो जुगन सोँ
काल कर्म को तानो बानो तानि अगोचर-
सो सब कल्मषहीन शुद्ध द्वै जात निरंतर।
फिर तो जीवहिं धरन परत नहिँ देहहि या तो
अथवा ऐसो विमल ज्ञान ताको ह्वै जातो,
धरत देह जो फेरि कतहुँ नव जन्महि पाई
हरुओ ह्वै भवभार ताहि नहिं परत जनाई।
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