पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२२०

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चलत जात आरोहपंथ पै या प्रकार सोँ
मुक्त 'स्कंधन' सोँ, छूटत मायाप्रतार सोँ,
उपादान के बंधन औ भवचक्र हटाई
पूर्णप्रज्ञ ह्वै जगत मनो दुःस्वप्न विहाई,
अंत लहत पद भूपन सोँ, सब देवन सोँ बढ़ि।
जीवन की सब हाय हाय मिटि जाति दूर कढ़ि।
गहत मुक्त शुभ जीवन, जो नहिं या जीवन सम,
लहत चरम आनंद, शांति, निर्वाण शून्यतम।
निर्विकार अविचल विराम को यहै ठौर है;
यहै परम गति, जाको नहिं परिणाम और है।

इत बुद्ध ने संबोधि पाई प्रगट उत ऊषा भई।
प्राची दिशा में ज्योति अभिनव दिवस की जो जगि गई,
सो जात सरकत यामिनीपट बीच कार ढरि रही,
भगवान् की या विजय की मृदु घोषणा सी करि रही।

नव अरुण-प्राभा-रेख अब धुँधले दिगंचल पै कढ़ी।
नभनीलिमा ज्यों ज्यों निखरि कै जाति ऊपर को बढ़ी
यों त्यों सहमि कै शुक्र अपनो तेज खोवत जात है;
पीरो परो, फीको भयो, अब लुप्त होत लखात है।

शुभ दरस दिनकर को प्रथम ही पाय नग छायासने।
करि पद्मराग-किरीट-भूषित भाल सोहत सामने।