पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१६१)

किलकिलन की किलकार, 'काँ काँ' काककंठ कठोर की;
'टर टर' करेटुन की करारी, कतहुँ केका मोर की;
पुलकित परेवन की परम प्रिय प्रेमगथा रसभरी
जो चुकनहारी नाहिं जौ लौँ चुकति नहिं जीवनघरी।

ऐसो पुनीत प्रभाव प्रभु के परम विजयप्रभात को
घर घर बिराजी शांति, झगरो नाहिँ काहू बात को।
झट फेंकि दीनी दूर छूरी बधिक तजि बधकाज को।
लै फेरि धन बटपार दीनो, बणिक छाँड़्यो ब्याज को।

भे क्रूर कोमल, हृदय कोमल औरहू कोमल भए
पीयूष सो संचार दिव्य प्रभात को वा लहि नए।
रण थामि दीनो तुरत नरपति लरत जो रिस सोँ भरे।
बहु दिनन के रोगी हँसतमुख उछरि खाटन सोँ परे।

नर मरन के जो निकट सहसा सोउ प्रमुदित ह्वै गए
लखि उदित होत प्रभात मानो देश सोँ काहू नए।
पिय सेज ढिग जो दीन हीन यशोधरा बैठी रही,
हिय बीच वाहू के हरख की धार सी सहसा बही;

मन माहिँ ताके उठति आपहि आप ऐसी बात है
'जो प्रेम साँचो होय कबहूँ नाहिँ निष्फल जात है।

११