पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२३३

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आँखिन पर को परदो जो नहिं चाहत टारन,
उरझे जामें तारि सकत सो इंद्रियजाल न,
कैसे ऐसे जीव ग्रहण या ज्ञानहिं करिहैं?
'अष्ट मार्ग' 'द्वादश निदान' कैसे चित धरिहैं?
येई हैं उद्धारद्वार, पै है विचित्र गति!
खग पींजर में पलो लखत नहिं खुले द्वार प्रति।
खोजि मुक्ति को मार्ग ताहि नर हेतु कठिन गुनि
आपै इकले चलते जो भगवान् शाक्य मुनि,
जग में काहुहि जानि तत्व को नहिं अधिकारी
तजते जो प्रभु लहते गति कैसे नरनारी?

सब जीवन पै दया रही पै प्रभु के हृदय समानी;
याहि बीच सुनि परी दुखभरी अतिशय आरत बानी।
जनु "नश्यामि अहँ भूनश्यति लोकः"भू चिल्लाई।
कछुक बेर लौँ शांति रही पुनि धुनि पवनहुँ तें आई-

भगवान्! धर्म सुनाइए, भगवान्! धर्म सुनाइए।
भवताप तें हैं जरि रहे अब नेकु बार न लाइए।

दिव्य दृष्टि भगवान् तुरत प्राणिन पै डारी
देख्यो को हैं सुनन योग्य, को नहिं अधिकारी;
जैसे रवि, जो करत कनकमय अमल कमलसर,
लखत कौन हैं, कौन नाहिं कलियाँ बिगसन पर।