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यशोधरा को कंठ हर्ष सोँ गद्गद भारी,
बड़ी बेर में सँभरि वचन यह सकी उचारी-
"हे सुजान जन! भलो होयहै सदा तुम्हारो।
लाए तुम संवाद मोहिं प्राणन तें प्यारो।
जानत जो तुम होहु, मोहिं अब यहौ बताओ
कैसे यह सब बात भई, कहि मोहिं सुनाओ।"
भल्लिक ने तब कही बात वा निशि की सारी,
जानत जाको 'गय' पर्वत के सब नरनारी।
कैसी घनी अँधेरी में छाया दरसानी,
मारकोप सोँ कँपी धरा, भो खलभल पानी।
कैसो भव्य प्रभात भयो पुनि, भानु संग जब
आशा की नव ज्योति जगी सो जीवन हित सब;
कैसे तब भगवान मिले वा बोधिविटप
तर धरे तेज आनंद अलौकिक मुख पै सुन्दर।
भए आप तो मुक्त बुद्ध संबोधिहि पाई
'कैसे हमसोँ दुखी जगत् की होय भलाई'
परे सोच में रहे याहि प्रभु कछु दिन ताईँ,
बोझ सरीखो एक हृदय पै परत जनाई।
विषय भोग में लिप्त पापरत जन संसारी,
गहत रहत जो नाना वस्तुन सोँ भ्रम भारी,