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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२४

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का रहना इतिहास-प्रसिद्ध है। वि० सं० १३५३ के लगभग अलाउद्दीन गद्दी पर बैठा था। अब हम्मीर के समय में उनके कुछ पीछे बने हुए पद्यों की भाषा को खुसरो की भाषा से मिला कर देखिए । हो सकता है कि खुसरो की कविता फारसी अक्षरों में लिखी जाने के कारण अपने ठीक रूप में न आ सकी हो, पर कहाँ तक फर्क पड़ा होगा। पहली प्राणप्रतिष्ठा अब बोलचाल की चलती बोलियाँ दबी न रह सकी। मिथिला में विद्यापति ठाकुर ने अपने प्रदेश की बोलचाल की भाषा को आगे किया और उसमें सरस कविता करके वे मैथिल कोकिल कहलाए। इधर ब्रजभूमि के कवियों की कृपा से काव्यभाषा का व्रजत्व बढ़ा। जो भाषासाहित्य की भाषा बन कर बोलचाल की भाषा से कुछ अलग अलग बड़ी ठसक से चल रही थी वह ब्रजमंडल की चलती हुई भाषा के प्रवाह में डुबाई गई जिससे उसमें नया जीवन आगया, वह निखर कर जीती जागती भाषा के मेल में हो गई। पर इस बार में भी काव्यभाषा के परंपरागत पुराने रूप कुछ न कुछ साथ लगे रहे, या यों कहिए कि जान बूझ कर रख लिए गए। 'जासु' 'तासु', 'नाह', 'ईछन', 'दीह', 'लोयन', आदि बहुत से पुराने पड़े हुए, बोलचाल से उठे हुए या अप्रचलित प्राकृत साहित्य से आए हुए शब्द तथा शब्दों के कालवाचक और कारकसूचक रूप (जैसे, शोभिजै, कहियत, आवहिं, करहिं, रामहिँ ) परंपरा