रक्षित रखने के लिए बराबर लाए जाते रहे । ये चलती हुई
ब्रजभाषा के शब्द और रूप नहीं हैं, उस कविसम्मत भाषा के
शब्द और रूप हैं जिसकी परंपरा बहुत पुरानी है। इसका स्पष्ट
प्रमाण यह है कि अवधी बोली ( जो पूरबी है ) के कवियों ने
भी इनका प्रयोग किया है। अवधी की कविता में 'जासु'
'तासु' बराबर मिलेंगे पर 'जाको' 'ताको' आदि चलती हुई
ब्रजभाषा के रूप नहीं पाए जायेंगे; इनके स्थान पर उसमें
'जाकर' 'वाकर' या 'जेकर' 'तेकर मिलेंगे।
इधर काव्यभाषा ने व्रज का चलता रूप पृरा पूरा धारण
किया उधर साहित्य की ओर अवधप्रदेश की भाषा भी अग्र-
सर हुई। पहले तो इसे लेकर वे लोग ही चले जिनका शिष्ट
साहित्य से विशेष संपर्क न था। कबीरदाम ने यद्यपि पंच-
रंगी मिलीजुली भाषा का व्यवहार किया है जिसमें ब्रजभाषा
क्या उस खड़ी बोली या पंजाबी तक का पूरा पूरा मेल है जो
पंथवालों की सधुक्कड़ी भाषा हुई पर पूरची भाषा की झलक
उसमें अधिक है। 'जहिया', 'तहिया', 'ग्राउब', 'जाब' आदि
पूरबी प्रयोग भरे पड़े हैं। धीरे धीरे अवध में जब मुसलमानों की
खासी बस्ती हो गई तब वहाँ की भाषा ने उन्हें प्राकर्षित
- खड़ी बोली मुसलमानो की भाषा हो चुका थी। मुसलमान
भी साधुओं की प्रतिष्ठा करते थे, चाहे वे किसी दीन के हों। इससे खड़ी बोली दोनों धर्मों के अनण्ढ़े लोगों को साथ लगानेवाले और किसी एक के भी शास्त्रीय पक्ष से संबंध न रखनेवाले साधुओं के बड़े का की हुई। जैसे इधर अँगरेज़ों के काम की 'हिंदुस्तानी' हुई। ,