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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२४०

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राजपाट बिलात, तरसति प्रजा दरस न पाय।
अतिथि थोरे दिनन को हैं, मुख दिखाओ आय।"
नौ दूत छूटि यशोधरा की ओर सोँ गे धाय
संदेस लै यह "राजकुल की रानि, राहुल-माय

मुख देखिबे के हित तिहारो परम व्याकुल छीन-
जैसे कुमुदिनी बाट जोहति चन्द्र की ह्वै दीन;
जैसे अशोक विकाश हित निज रीति के अनुसार
पियराय जोहत रहत कोमल तरुणि-चरण-प्रहार।

जो तज्यों वासोँ बढ़ि पदारथ मिलो जो कोउ होय,
है अवसि तामें भाग ताहू को; चहति है सोय।"

तुरत शाक्य सामंत मगध की ओर सिधारे।
पै पहुँचे वा समय वेणुवन बीच बेचारे
रहे धर्मउपदेश करत भगवान बुद्ध जब।
लगे सुनन ते, भूलि गए संदेस आदि सब।
रह्यो ध्यान नहिं महाराज को कछु मन माहीँ
और कुँवर की रानी हू की सुधि कछु नाहीँ।
चित्रलिखे से रहे, सके नहिं वचन उचारी;
रहे अचल अनिमेष दृष्टि सोँ प्रभुहि निहारी।
मति गति थिर ह्वै गई सुनत प्रभु की शुभ बानी
ज्ञानदायिनी, ओजभरी, करुणारस-सानी।