पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१७९)

ज्यों खोजन आवास भ्रमर कोउ निकसत बाहर,
लखत मालती फूल कहूँ छाए खिलि सुन्दर,
औ पवनहुँ में मधुर महक तिनकी है पावत,
आँधी पानी राति अँधेरी मनहिं न लावत,
बैठत विकसित कुसुमन पै तिन अवसि जाय कै,
गहत मधुर मकरंदसुधा निज मुख गड़ाय कै,
त्यों पहुँचे ते सबै शाक्य सामंत तहाँ जब
बुद्ध-वचन-पीयूष पान करि भूलि गए सब;
रह्यो चेत कछु नाहिं कौन कारज साँ आए।
भिक्षुसंघ में मिले जाय, नहिं कछु कहि पाए।

बीते जब बहु मास बहुरि नहिँ कोऊ आयो
कालउदायी सचिवपुत्र को नृपति पठायो,
बालसखा जो रह्यो कुँवर को अति सहकारी,
जापै भूपति करत भरोसो सब सोँ भारी।
पै सोऊ है गयो भिक्षु तहँ मूँड़ मुड़ाई,
रहन लग्यो प्रभुसंघ माहिँ घरबार विहाई।

एक दिवस ऋतु परम मनोहर रही सुहाई;
बोल्यो प्रभु के निकट जाय सो अवसर पाई-
"हे भगवन्! यह बात उठति मेरे मन माहीँ,
एक ठौर को वास उचित भिक्षुन को नाहीँ।