पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२४२

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घूमि घूमि कै तिन्हैँ चाहिए धर्म प्रचारैं।
भलो होय, प्रभु कपिलवस्तु की ओर पधारैं,
जहाँ भूप तव वृद्ध पिता तरसत दर्शन हित
औ राहुल की माता दुख सोँ बिकल रहति नित।"

बोले तब भगवान् बिहँसि सब की दिशि हेरी-
"अवसि जायहौं, धर्म और इच्छा यह मेरी।
आदर में ना चूकै कोऊ मातुपिता के,
जो हैं जीवन देत, सकल साधन वश जाके,
जाको लहि नर चाहैं तो सो जतन सकत करि
जन्म मरण को बंधन जासोँ जाय सकल टरि।
लहै चरम आनंदरूप निर्वाण अवसि नर
रहै धर्म के पालन में जो निरत निरंतर,
दहै पूर्व दुष्कर्म, तार हू तिनको तोरै,
हरुओ करतो जाय भार, पुनि और न जोरै,
होय प्रेम में पूर्ण दया दाक्षिण्य भाव भरि,
जीवन अपनो देय आप परहित अर्पित करि।
महाराज के पास जाय यह देहु जनाई
आवत हौं आदेश तासु निज सीस चढ़ाई।"
कपिलवस्तु में बात जाय जब पहुँची सारी,
अगवाई के हेतु कुँवर के सब नर नारी