पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२४७

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"सब रागन सोँ रहित, वासना सकल निवारी,
त्यागि कामिनी-परस कुसुमकोमल मनहारी
यशोधरा को करन दियो प्रभु क्यों आलिंगन?"
सुनत बुद्ध भगवान् वचन बोले प्रसन्न मन-
"महाप्रेम योँ छोटे प्रेमन देत सहारो
सहजहि ऊँचे जात ताहि लै दै पुचकारो।
ध्यान रहै जो कोउ छूटि बंधन सोँ जावै
मुक्तिगर्व करि बद्ध जीव कबहूँ न दुखावै।
समुझि लेहु यह मुक्ति लही है जाने, भाई!
एक बार ही नाहिँ कतहुँ काहू ने पाई।
जन्म जन्म बहु जतन करत औ लहत ज्ञानबल
आवत हैं जो चले, अंत में पावत यह फल।
तीन कल्प लौँ करि प्रयास अति प्रबल अखंडित
बोधिसत्त्व हैं मुक्त होत जग की सहाय हित।
प्रथम कल्प में होत 'मनः प्रणिधान' श्रेष्ठतर;
बुद्ध होन की जगति लालसा मन के भीतर।
होत 'वाक् प्रणिधान' दूसरे कल्प माहिँ पुनि;
'ह्वै जैहौँ मैँ बुद्ध' कहत यह बात परत सुनि।
लहत तीसरे कल्प माहिँ 'विवरण' पुनि जाई
"अवसि होहुगे बुद्ध" बुद्ध कोउ बोलत आई।*[१]


  1. *'मनः प्रणिधान' के उपरांत सर्वभद्रकल्प में जब गौतम धन्यदेशीय सम्राट के पुत्र हुए तब उन्होंने कहा "मैं बुद्ध हूँगा'। सारमंद नामक