पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१८६)

प्रथम कल्प में रह्योँ ज्ञान शुभ मार्ग गुनत सब, पै आँखिन पै परदो मेरे परो रह्यो तब। भयो न जाने किते लाख वर्षन को अंतर 'राम' नाम को वैश्य रह्योँ जब सागर तट पर, परति सामने स्वर्णभूमि दक्षिण दिशि जाके निकसत सीपिन साँ मोती जहँ बाँके बाँके। यशोधरा यह रही संगिनी तबहुँ हमारी, लक्ष्मी ताको नाम, रही ऐसिय सुकुमारी। घर दरिद्र अति रह्यो, मोहिँ सुधि आवति सारी। लाभ हेतु परदेस कढ़्योँ मैँ दशा निहारी। लक्ष्मी तबहूँ आँसुन सोँ आँखें भरि लीनी; "विलग न मोसोँ होहु" बोलि योँ बिनती कीनी- "जलथल पथ की विकट आपदा क्यों सिर लैहौ? चाहत एतो जाहि ताहि तजि कैसे जैहौ?" पै मैं साहस सहित गयाँ चलि सागर पथ पर। पथ के अंधड़ झेलि और श्रम करि अति दुष्कर,


तीसरे कल्प में वे पुष्पवती के राजा सुनंद के पुत्र हुए। इसी कल्प में उन्हें तृष्णांकर बुद्ध द्वारा 'अनियत विवरण' (अर्थात् तुम बुद्ध हो सकते हो) और दीपंकर बुद्ध द्वारा 'नियत विवरण' (अर्थात् तुम अवश्य बुद्ध होगे) प्राप्त हुआ। कहीं कहीं बोधिसत्व की तीन अवस्थाओं के नाम 'अभिनीहार' (बुद्धत्व की आकांक्षा), व्याकरण (किसी तथागत की भविष्यद्वाणी कि तुम बुद्ध होगे), और हलाहल (आनंदध्वनि) भी मिलते हैं।