पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२५२

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तासु व्याकुल वदन बुद्ध विलोकि मृदु टक लाय,
तेजपूरित विनय सोँ नै लियो दीठि नवाय।

निज कुँवर को सो भाव भूपहि पर्यो अति प्रिय जानि
पहिचानि पूर्ण स्वरूप ताको और मन अनुमानि
भव विभव सोँ बढ़ि सकल तासु विभूति और प्रताप
योँ सहमि जासों चलत सँग सब शांति सोँ चुपचाप।

नृप तदपि बोल्यो "कहा होनो रह्यो याही, हाय!
योँ दबे पाँयन कुँवर अपने राज ही में आय,
तन धारि कंथा फिरै माँगत भीख सब के द्वार
जहँ देवदुर्लभ रह्यो जीवन तासु या संसार?

ऐश्वर्य यह, हे पुत्र! सारो रह्यो तेरो दाय।
तिन नृपन के वर वंश में तू जन्म लीनो आय
जे लहत कर-संकेत करि जो चहत भूतल माहिं,
आदेश-पालन माहिं जिनके कोउ चूकत नाहिँ।

धरि चहत आवन रह्यो तोहिँ परिधान पद अनुसार
लै संग, भाले करत चम चम, चपलगति असवार।
यह देखु! डेरे डारि सैनिक परे सब पथतीर,
तोहि लेन आगे सोँ खड़ी पुरद्वार पै यह भीर।