पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२५३

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तू रह्यो एते दिनन लौं कहँ फिरत राजकुमार?
दिन राति रोवत रह्यों ढोवत मुकुट को या भार।
घर बैठि तेरी बधू विधवा सी दशा तन लाय
ह्वै रही दीन मलीन अति, सुखसाज सकल विहाय

नहिँ सुन्यों कबहूँ गीत वा मृदु बीन की झनकार,
नहिँ धरसो तन पै कबहुँ सुंदर वसन एकहु बार,
आगमन सुनि बस आज धारयो स्वर्णवस्त्र सजाय
निज भिक्षुपति सोँ मिलन हित, जो धरे वास कषाय।

हे सुत! कही, यह कहा?" उत्तर दियो तब प्रभु हेरि
"हे तात! यह कुलधर्म मेरो;" सुनि कह्यो नृप फेरि
"लै महासम्मत साँ भए सौ भूप तव कुल माहिँ;
पै कियो काहू ने कबहुँ तो काज ऐसो नाहिं।"

बोले प्रभु "कुलपरंपरा मर्त्यन की नाहीँ,
पै बुद्धन के अवतारन की जुग जुग माहीँ।
पहले हू हैं भए बुद्ध, आगे हू ह्वेहैं;
तिनहीं में से एक हमहुँ, हे तात! कहैहैं।
जो कछु वे करि गए किया मैंने सोई अब,
जो कछु अब ह्वै रह्यो भयो पहले हू सो सब।
नृपति एक धरि वर्म जाय निज पुर के द्वारन
मिल्यो पुत्र सोँ, धरे रह्यो जो भिक्षुवेष तन,