पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२५८

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निकटस्थ अति या भाँति ताकी परति सो दरसाय
त्रैलोक्य वाणी जासु जोहत रह्यो अति अकुलाय।

भगवान के मुख सोँ कढ़्यो जो ज्ञान परम नवीन
कहि सकौँ तासु शतांश हू मैं नाहिँ अति मतिहीन।
या काल में बसि बात सब मैं सकौं कैसे जानि?
हिय धरौं बस कछु भक्ति प्रभु के प्रेम को पहिचानि।

आचार्यगण जो लिखि गए प्राचीन पोथिन माहिँ
हौँ कहौँ तासोँ बढ़ि कछू सामर्थ्य एती नाहिँ।
भगवान् ने जो दियो वा उपदेश को कछु सार
जो कछू थोरो बहुत जानत कहत मति अनुसार।

उपदेश केते सुनन आए करै गिनती कौन?
प्रत्यक्ष जे लखि परे तहँ बसि सुनत धारे मौन
कहुँ रहे तिनसों लाख और करोरगुन अधिकाय।
सब देव पितर अदृश्य है तहँ रहे भीर लगाय।

सब लोक ऊपर के भए सूने निपट वा काल।
छुटि नरक हू के जीव आए तोरि साँसति-जाल।
बिलमी रही बढ़ि अवधि सोँ रविज्योति परम ललाम
अनुराग सोँ अति झाँकते गिरिशृंग पै अभिराम!