पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१९५)

आँगनन में जिन नृपति टहरत फिरत गिरगिट हैं तहाँ
अब स्यार वेदी तर बसत तहँ सजत सिंहासन जहाँ।

बस शृंग, सरित, कछार और समीर ज्योँ के त्योँ रहे
नसि और सब शोभा गई, वे दृश्य जीवन के बहे।
नृप शाक्य शुद्धोदन बसत ह्याँ राजधानी यह रही।
भगवान् जहँ उपदेश भाख्यो एक दिन सो थल यही।

पूर्व काल में कबहुँ रह्यो यह थल अति सुंदर।
याके चहुँ दिशि लसत रम्य आराम मनोहर।
बाटैं बिच बिच कटीँ; सेतु नारिन पै सोहत,
चलत रहत जलयंत्र, सरोवर जनमन मोहत।
पाटल के परिमंडल भीतर चमकत चत्त्वर।
लसत अनेक अलिंद, खंभ बहु सोहत सुंदर।
इत उत तोरण राजभवन के कहुँ बढ़ि आए
चमकत जिनके कलश दूर सोँ रविकर पाए।
याही थल भगवान् एक दिन बैठे आई;
भक्ति भाव सोँ घेरि लोग प्रभु दिशि टक लाई
जोहत मुख सुनिबे को वाणी ज्ञान भरी अति,
जाको लहि जग शांत वृत्ति गहि तजी क्रूर मति;
नर पंचाशत् कोटि आज लौं जाके अनुगत,
काटन हित भवपाश आस करि होत धर्मरत।