किया। सहसराम के शासक हुसैनशाह के आश्रित कुतबन ने अवधी बोली मैं मृगावती लिखी । हुसैनशाह के पुत्र शेरशाह के ज़माने में मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' लिख कर हिंदुओं के घरेलू भावों का जो माधुर्य दिखाया उससे अवधी भाषा की शक्ति का परिचय मिल गया। सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने जिस प्रकार अपने उपास्य देव की जन्म- भूमि की भाषा प्रेमपूर्वक ली उसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास ने अपने उपास्य की जन्मभूमि अयोध्या की भाषा में अपना रामचरित मानस लिखा। ऐसे महाकवि के हाथ में पड़ कर अवधी भाषा पूर्व से पश्चिम तक ऐसी गूंजी कि काव्य की सामान्य भाषा ने अष्टछाप के कवियों द्वारा व्रज का जो चलता विशुद्ध रूप पाया था उसमें बाधा पड़ने का सामान हुआ। रहीम . ने अवधी भाषा की ओर विशेष रुचि दिखाई। 'बरवै नायिका- भेद' तो उन्होंने अवधी भाषा में लिखा ही, अपने नीति के चुटीले दोहों में भी अवधी के भोलेपन का पूरा सहारा लिया। धीरे धीरे ब्रजभाषा की विशुद्धता की ओर बहुत से कवियों का ध्यान नहीं रहा और वे ब्रजभाषा की कविता में भी अवधी के शब्दों और रूपों का मनमाना व्यवहार करने लगे। अल्प शक्तिवाले कवियों को इसमें सुबीता भी बहुत दिखाई दिया-एक ही अर्थ सूचित करने के लिए शब्दों की एक खासी भीड़ उन्हें मिल गई । कीनो, कियो, करसों, कर, किय, कीन; आवे, आवहिं . ( मौका पड़ने पर 'प्रावहीं' भी), आवत ; थोरो, थोर ; मेरो,
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२६
दिखावट