पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२६४

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नित्य बद्ध तुम नाहिँ बात यह निश्चय धारो,
सब दुःखन सोँ सबल भ्रात! संकल्प तिहारो।
दृढ़ ह्वै कै जो चलौ, भलो जो कछु बनि ऐहै
क्रम क्रम सोँ सो और भलोई होतहि जैहै।
सब बंधुन की आँसुन में निज आँसु मिलाई
हौं हूँ रोवत रह्यौँ कबहुँ जैसे तुम, भाई!
फाटत मेरो हियो रह्यो लखि जगदुख भारी;
हँसौँ आज सानंद बुद्ध है बंधन टारी।
'मुक्तिमार्ग है' सुनौ मरत जो दुख के मारे!
अपने हित तुम आपहि दुख बिढ़वत हौ सारे।
और कोउ नहिँ जन्म मरण में तुम्हैं बझावत,
और कोउ नहिं बाँधि चक्र में तुम्हें नचावत,
काहू के आदेश सोँ न भेंटत हौ पुनि पुनि
तापपार औ अश्रुनेमि औ असत्-नाभि चुनि।
सत्य मार्ग अब तुम्हैँ बतावत हौं अति सुंदर।
स्वर्ग नरक सोँ दूर, नछत्रन सोँ सब ऊपर
ब्रह्मलोक तें परे सनातन शक्ति विराजति
जो या जग में 'धर्म' नाम सोँ आवति बाजति,
आदि अंत नहिँ जासु, नियम हैं जाके अविचल
सत्वोन्मुख जो करति सर्गगति संचित करि फल