पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२६५

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परस तासु प्रफुल्ल पाटल माहिँ परत लखाय,
सुघर कर सोँ तासु सरसिज-दल कढ़त छवि पाय।
पैठि माटी बीच बीजन में बगरि चुपचाप
नवल वसन वसंत को सो बिनति आपहि आप।

कला ताकी करति है धनपुंज रंजित जाय।
चंद्रिकन पै मोर की दुति ताहि की दरसाय।
नखत ग्रह में सोइ; ताही को करैं उपचार
दमकि दामिनि, बहि पवन औ मेघ दै जलधार।

घोर तम सोँ सृज्यो मानव हृदय परम महान्,
क्षुद्र अंडन में करति कलकंठ को सुविधान।
क्रिया में निज सदा तत्पर रहति, मारग हेरि
काल को जो ध्वंस ताको करति सुंदर फेरि।

तासु वर्त्तुल निधि रखावत चाष नीड़न जाय
छात में छः पहल मधुपुट पूर्ण तासु लखाय।
चलति चीँटी सदा ताके मार्ग को पहिचानि;
और श्वेत कपोत हू हैं उड़त ताको जानि।

गरुड़ सावज लै फिरत घर वेग सोँ जा काल
शक्ति सोई है पसारति तासु पंख विशाल।