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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७१

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जगत् के सुख दुख न सो चिर शांति करिहैं भंग,
जन्म मरण न लागिहै पुनि और ताके संग।

पायहै सो परम पद निर्वाण पूर्ण प्रकार;
नित्य जीवन माहिँ मिलिहै होय जीवन पार;
होयहै निःशेष है सो धन्य, भ्रमिहै नाहिँ―
जाय मिलिहै ओसबिदु अनंत अंबुधि माहि।

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डों मणिपद्मे हुं

कर्म को सिद्धांत है यह, लेहु याको जानि ।
पाप के सब पुंज की ह्मै जाति है जब हानि,
जात जीवन जबै सारो लौ समान बुताय
तबै ताके संग ही यह मृत्यु हू मरि जाय ।

'हम रहे', 'हम हैं', 'होयँगे हम' कहौ जनि यह बात ;
समझो न पथिकन सरिस पल के घरन में बहु, भ्रात!
तुम एक छाँड़त गहत दूजो करत आवत बास
सुध्रि राखि अथवा भूलि जो कछु होत दुःख सुपास ।