पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७०

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अहंभाव निकासि होवै निखरि निर्मलकाय;
स्वार्थ सोँ नहिं तासु रंचक काहु को कछु जाय ;
नम्र ह्मै सब सहै ; कोऊ करै यदि अपकार
पाय अवसर करै ताको बनै जो उपकार ;

होत दिन दिन जाय सो यदि सदय, पावन, धीर,
न्यायनिष्ठ, सुशील, साँचो, नम्र औ गंभीर ;
जाय तृष्णा को उखारत मूल प्रति छन माहिं
होय-जीवन वासना को नाश जौ लौँ नाहिं

मरे पै तब तासु रहिहै अशुभ को नहिँँ चूर ;
जन्म को लेखो सकल चुकि जायहै भरपूर ;
जायहै शुभ मात्र रहि है सबल बाधाहीन;
पाय फल सो परम मंगल माहिँ ह्मैहै लीन ।

जाहि जीवन कहत तुम सो नाहिं पैहै फेरि ।
लगो जो कछु चलो आवत रह्यो वाको घेरि
गयो चुकि सो; भयो पूरो लक्ष्य सो गंभीर
मिलो जाके हेतु वाको रह्यो मनुज-शरीर ।

नाहिं ताहि सतायहै पुनि वासना को जाल
और किल्विष हू कलंक लगायहै नहिं भाल ।
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