पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७३

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या नए जीवन की प्रगति शुभ अशुभ दिशि लै जाय ।
जब हनत काल कराल पुनि निज क्रूर करहि उठाय
रहि जात तब वा जीव को जो शेष शुद्धिविहीन
सो फेरि झंझावात झेलत सहत ताप नवीन ।

पै मरत है जब जीव कोऊ पुण्यवान् सुधीर
बढ़ि जाति जग की संपदा कछु, बहत सुखद समीर।
मरु भूमि की ज्योँ धार बालू बीच जाति बिलाय
है शुद्ध निर्मल फेरि चमकति कढ़ति है कहुँ जाय ।

या भाँति अर्जित पुण्य अर्जित करत है शुभ काल ;
यदि पाप ताको देत बाधा रुकति ताकी चाल ।
पै धर्म सब के रहत ऊपर सदा या जग माहिँ;
कल्पांत लौं विधि चलति ताकी, कबहुँ चूकति नाहिं।

तम ही तुम्हैं भव बीच डारत है अविद्या छाय,
तुम जाल में परि जासु झूठे दृश्य सत् ठहराय
है । करत तृष्णा लहन की, औ लहि तिन्हें फँसि जात
बहु रूप रागन माहिँ जो हैं करत तुमसोँ घात ।

जे 'मध्यमा प्रतिपदा’* को गहि होन चाहैं पार―
पथ जासु प्रज्ञा खोजि काढ़ति, शांति करति सुढार―


*कामसुख श्रादि विषयों का सेवन और शरीर को क्लेश देना इन दोनों अंतों का त्याग और मध्यम मार्ग का ग्रहण ।