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निर्वाणपथ की ओर चाहे चलन जे चित लाय
ते सुनें, अब हौं कहत चारो 'आर्य सत्य' बुझाय ।
प्रथम तो है 'दुःख सत्य' न तुम्हैं जासु बिचार,
परम प्रिय जीवन तुम्हैं सो दीर्घ दुख को भार ।
क्लेश ही रहि जात हैँ, सुख परत नाहिँ जनाय,
आय पंछी से कबहुँ उड़ि जात झलक दिखाय ।
जातिदुःख अपार,शैशव दशा को दुख घोर,
दुःख यौवन ताप को, श्रमदुःख फेरि कठोर,
दुःख दारुण जरा को, पुनि मरणदुःख कराल,
दुःख या भाँति सिगरो जात जीवनकाल ।
प्रेम है अति मधुर;पैसो अधर जो न अघात
और परिरंभित पयोधर लपट सोँ लपटात ।
अवसि संगरशूरता अति परति भव्य लखाय,
किंतु वीर नरेंद्र के भुज गीध नोचत जाय ।
लसति सुन्दर वसुमती, पै लखौ नयन उठाय
एक एकहि हतन की कत रहत घात लगाय!
लगत नीलम सरिस नभ, पैदेत बूंद न डारि
अन्न बिनु जब लोग ब्याकुल मरत त्राहि पुकारि