पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७७

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यहै अति आनन्द―देवन सोँ परे ह्मै जाय ;
अतुल संपति यहै―राखै नित्य निधिहि जुटाय ।

नित्य निधि यह जुरति कोने दया औ उपकार,
दान, मृदुता, मधुर भाषण, और शुचि व्यवहार ।
अछय धन यह जाय जोरत सदा जीवन माहिं,
लोक में परलोक में कहुँ छीजिहै जो नाहिं ।

दुःख को योँ अंत ह्मैहै आपही वा काल
जन्म को औ मरण को जब छूटिहै जंजाल ।
जायहै चुकि तेल उठिहै दीप लौ किहि भाँति ?
जायहै रहि बस अनालय मुक्ति की शुभ शांति ।

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'मार्ग' नाम को 'आर्य सत्य' अब चौथो आवै,
सब के चलिबे जोग सुगम जो पंथ सुहावै ।
सुनौ 'आर्य अष्टांग मार्ग' यह है अति सुंदर
सूधो जो चलि गयो शांति की ओर निरंतर ।
गए विविध पथ हिममंडित वा शुभ्र शिखर तन
जाके चहुँ दिशि लसत स्वर्णरंजित कुंचित घन ।
अति सुढार वा अति कुढार पथ गहि, हे भाई!
शांतिधाम के बीच पथिक पहुँचत वा जाई ।