पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७६

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विभवतृष्णा देति या भू बीच कलह पसारि ।
करत बिलखि विलाप वंचित दीन आँसू ढारि ।
काम, क्रोध लखात ईर्षा, द्वेष, हिंसा, घात ।
रक्त में सनि वर्ष पाछे वर्ष धावत जात ।

जहाँ चाहत रह्यो उपजै अन्न सुख सरसाय
फैलि कलियारी तहाँ विषमूल रही बिछाय,
क्रूर कटुता सोँ भरे निज फूल रही दिखाय ।
जहाँ नीके बीज जामैँ ठौर सो न लखाय ।

माति विष सोँ जात जग सोँ जीव त्यागिशरीर
तृषा-आतुर फेरि लौटत कर्मधारा तीर ।
आयतनगत, कर्मबीजन सोँ सनो, श्रमलीन
चलत है पुनि अहं, माया मिलति और नवीन ।

सत्य 'दुःखनिरोध' नामक तीसरो है, भ्रात!
बिजय तृष्णा पै लहै करि सकल रागनिपात ।
मूलबद्ध कुवासना मन सोँ समस्त उखारि
करै अंतस के उपद्रव शांत धीरज धारि ।

प्रेम याही―नित्य सुषमा हेरि तन मन देय ;
और यहै प्रताप ―आपहिं जीति वश करि लेय;