पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २१८ )


मुख सोँ बाहर कढ़ै शब्द जो कबहुँ तुम्हारे
शांत, मधुर, प्रिय औ विनीत ते होवैं सारे ।
पुनि 'सम्यक कर्मात’ अंग चौथो जो लैहौ
साधत साधत सुकृत कर्मक्षय-मारग पैहौ ।
क्रिया तुम्हारी होयँ जगत् में जेती सारी
शुभ को बाढ़न देयँ, अशुभ को देयँ उखारी ।
फटिक-पोत के बीच स्वर्णगुण झलकत जैसे
शुभ कर्मन बिच प्रेम तुम्हारी झलकै तैसे ।
पुनि 'सम्यक् आजीव' पाँचवोँ अंग कहावै ;
करौ जीविका क्लेश नाहिं कोउ जासोँ पावै
गहि 'सम्यक व्यायाम' शिथिलता दूर हटाओ
करौ उचित श्रम तन मन में जनि आलस लाओ।
'सम्यक् स्मृति' बिनु ज्ञान सकत नहिँ थिरता पाई;
धारौगे जो आज जायगो कालि पराई ।
सात अंग ये साधि लहत 'सम्यक समाधि'नर;
सुख दुख दोऊ माहिं अचंचल रहत निरंतर ।
योँ सम वृत्तिहि पाय चित्त एकाग्र लगावत
जो जो मुक्ति उपाय तिन्हैं सब गुनत यथावत् ।

शक्ति प्राप्त बिनु किए उड़ौ ना ऊपर धाई
नीचे ही सोँ चलौ कर्म साधत सब,भाई!