पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२८०

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जो थल जानो सुनो प्रथम वाही को धरिए ।
शक्ति प्राप्त जब होय गमन ऊपर को करिए ।
अति प्रिय पुत्र कलत्र होत यह लेहु विचारी ।
बहु आहार विहार, सखा कैसे सुखकारी!
दान दया हैं सुंदर फल उपजावनहारे ।
जमे चित्त में यदपि तदपि भय झूठे सारे ।
ऐसो जीवन गहौ होयहै मंगलकारी ।
दलि पायँन तर पाप रचौ सोपान सँवारी ।
माया के बिच पंथ निकासत अपनो सुंदर
बढ़त जाव तुम सत्य धर्म की ओर निरंतर ।
या विधि ऊँची भूमिन पै तुम कढ़त जायहौ,
पापभार निज हरुओ औ गति सुगम पायहौ ।
होत जायहै दृढ़तर योँ संकल्प तिहारो,
क्रमशः बंधन तजत पंथ पैहौ उजियारो ।
मुक्तिमार्ग की प्रथम अवस्था जो यह पावै
सो अधिकारी नर 'श्रोत:आपन्न' कहावै ।
सब अपाय भय खोय सदा शुभ करत जायहै
मंगलमय निर्वाण धाम सो अंत पायहै ।
फेरि अवस्था है द्वितीय 'सकृदागामी' की;
हटत तीन प्रतिबंध, लहति मति गति अति नीकी ।
हिंसा औ आलस्य काम सो दूर करत है
एक जन्म बस और ताहि पुनि धरन परत है !