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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२८३

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शिक्षमाण ये धर्मरत्न सबसोँ बढ़ि जानौ
और सुधाहू सोँ इनको अति मधुर प्रमानौ-
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दया के नाते करौ जनि जीवहिंसा, भ्रात!
क्षुद्र तें अति क्षुद्र ये जो जीव हैँ दरसात
करत पूरो भोग ऊँचे जात पंथ सुधारि
देहु तुम इनको न बाधा बीच ही में मारि।

बनै जो कछु देहु औ तुम लेहु या जग माहिँ।
लोभ सोँ छलबल सहित पै लेहु तुम कछु नाहिँ।
देहु झूठी साखि ना, जनि करौ निंदा जानि।
सत्य बोलौ, सत्य ही है शुद्धता की खानि।

पियौ ना मद, देत बुद्धि नसाय जो हरि ज्ञान।
शुद्ध जो मन कहा ताको सोमरस को पान?
दीठि लाओ ना पराई नारि पै लहि घात,
करौ इंद्रिन को न अपने पाप में रत, भ्रात!