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(२२१)
कहै कोउ यदि "जीबो ही निर्वाण कहावत"
वासोँ तुम यह कहौ "व्यर्थ तुम भ्रम उपजावत।"
जाको कोऊ सुनि समुझै वा कहि समुझावै
ऐसो है सो नाहिं, व्यर्थ क्यों वाद बढ़ावै?
टिमटिमात जो जीवनदीपक को उजियारो
ताके आगे ज्योति कहा, को जाननहारो?
लसत परे अति काल-जन्म-बंधन सों जो है
कैसो सो आनंद सकै कहि ऐसो को है?
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गही मार्ग यह-दुख न द्वेष सोँ बढ़ि जग माहीँ,
क्लेश राग सोँ, धोखो इन्द्रिन सोँ बढि नाहीँ।
मुक्तिमार्ग पै गयो दूर बढ़ि सो पुनीत नर
जाने एकहु पाप दल्यो अपने को रुचिकर।
गहौ मार्ग यह-याही में सो सुधास्रोत है
जासोँ सारी प्यास बुझति, श्रम दूर होत है;
याही में वे अमरकुसुम हैं खिले मनोहर
हासमयी गति करत जात जो बिछि पाँयन तर;
याही में वे घरी परैं सुख की, हे भाई!
परम मधुर जो, जात परैं नहिँ कतहुँ जनाई।