पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२८५

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चलै संयम नियम सोँ योँ दयाधर्म निबाहि
जायँ कल्मषहीन दिन सब, लगै पाप न ताहि।

चलत जे या भाँति ह्वै कै शुद्ध औ गंभीर,
दयावान्, सुजान, श्रद्धावान् औ अति धीर,
आप से गुनि छोह जीवन पै सकल दरसाय,
धरत ते 'अष्टांगपथ' पै पाँव पहलो जाय।

दुःख वा सुख होत है जो जीव को जग माहिँ
अशुभ वा शुभ कर्म को फल, और है कछु नाहिँ।
स्वार्थ छाँड़ि गृहस्थ जेतो करत जग-उपकार
होत तेतो सुखी जनमत जबै दूजी बार।



एक दिन प्रभु रहे योँ हो वेणुवन दिशि जात;
लख्यो एक गृहस्थ ठाढ़ो न्हाय निर्मलगात,
जोरि कर नभ ओर नावत सीस बारंबार,
फेरि बंदन करत धरती को अनेक प्रकार,

पढ़त मुहँ सोँ कछुक अच्छत हाथ सोँ छितराय
घूमि चारो दिशा को पुनि सिर नवावत जाय।
बुद्ध ने तब जाय तासु समीप पूछी बात
"रहे हौ सिर नाय क्यों या भाँति तुम, हे भ्रात?"