सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२२८)
परिनिर्वाण

नाना देशन माहिँ आपनो 'संघ' बनावत
घूमि घूमि भगवान रहे निज वचन सुनावत।
कबहुँ राजगृह और कबहुँ वैशाली जाई,
कौशांबी औ श्रावस्ती मेँ कछु दिन छाई,
चातुर्मास्य[] बिताय विविध उपदेश सुनावत,
भूले भटकन को सुंदर मारग पै लावत।
अधिक काल पै श्रावस्ती ही माहिँ बिताया।
जहाँ 'जेतवन' बीच धर्म बहु कहि समझायो।
पतालिस चौमासन लौँ या धराधाम पर
प्रभु समझावत रहे धर्म के तत्व निरंतर,
जगी ज्योति जिनकी जग में ऐसी उजियारी
सब देशन को सूझि पर्यो पथ मंगलकारी;
ध्यावत जाको जग के आधे नर हिय धारे,
आलोकित हैं जाकी आभा सोँ मत सारे।
अंतकाल नियराय गयो जब एक दिवस तब
'पावा' में प्रभु जाय पधारे शिष्यन लै सब
'चुंद' नाम के कर्मकार के भवन कृपा करि।
पायो भोजन दियो सामने जो वाने धरि।
कुशीनार को गए तहाँ सोँ है पीड़ित जब
द्वै साखुन के बीच डारि शय्या पौढ़े तब।


  1. बौद्ध भिक्षु वर्षा या चौमासे भर एक ही स्थान पर रहते हैं