पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२८८

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'ध्यान चतुर्विध'[१] तिनको व्याख्या सहित बुझाए―
जीव हेतु जो परम मधुर हैं अमृतहु सोँ बढ़ि,
जिनको लहि सो सकत क्षार भवसागर सोँ कढ़ि।
'मैत्री', 'करुणा' औ 'उपेक्षा' मुदिता'[२] चारौ
अंग भावना के कहि बोले "इनको धारौ।"
शिक्षमाण[३] दै रत्न अंत भिक्षुन को सारे
बोले 'त्रिशरण गहौ'[४] मार्ग पै चलो हमारे।
भिक्षुन के प्राचार नियम हू सब निर्धारे,
रहैं राग औ विषय भोग सोँ कैसे न्यारे।
रहन सहन औ खान पान, परिधान बताए।
तिनके हित परिधेय तीन चीवर ठहराए-
'अंतरवासका' रहै एक, पुनि ताके ऊपर
धरैं 'उत्तरासंग' और 'संघाति' अंग पर।
राखें भिक्षापात्र संग में शयनासन
और अधिक जंजाल बढ़ावैं नाहिँ भिक्षुजन।
या विधि श्रीभगवान् गए निज 'संघ' बनाईं
जो अब लौँ चलि जात जगत् की करत भलाई।


  1. आठ विमोक्ष सोपानों में से तीसरे से सातवें तक को चतुर्विध ध्यान कहते हैं।
  2. मुदिता=संतोष।
  3. मार्ग, ऋद्धि, बल आदि सब मिलकर सप्तविंशच्छिक्षणमाण धर्म कहलाते हैं
  4. बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाना।