(२७) 'कविंदों ने ठेका सा ले लिया । समस्यापूर्ति की आदत के कारण कवित्त के अंतिम चरण की भाषा तो ठिकाने की होती थी, शेष चरण इस बात को भूल कर पूरे किए जाते थे कि शब्दों के कुछ नियत रूप और वाक्यों के कुछ निर्दिष्ट नियम भी होते हैं। पर भाषा के जीते जागते रूप को पहचाननेवाले रसखान और घनानंद ऐसे कवियों ने ऐसे सड़े गले या विकृत रूपों का प्रयोग नहीं किया है -किया भी है तो बहुत कम । 'आवहिं', 'जाहिं', 'करहि', 'करहु' न लिख कर उन्होंने बराबर 'आई', 'जायँ 'करै', 'करौ' लिखा है। इसी प्रकार 'इमि', जिमि', 'तिमि' के स्थान पर वे बराबर चलती भाषा के 'याँ, 'ज्याँ', 'त्या', लाए हैं। ब्रज की चलती भाषा में केवल सर्व- नामों के कर्म में 'ह' कुछ रह गया है, जैसे, जाहि, ताहि, वाहि. जिन्हैं, तिन्हैं । पर 'जाहि' 'वाहि' के उच्चारण में 'ह' घिसा जा रहा है, लोग 'जाय' 'वाय' के समान उच्चारण करते हैं। हिंदी की तीनों बोलियों में (खड़ी, ब्रज और अवधी) व्यक्तिवाचक सर्वनाम कारकचिह्न के पहले अपना कुछ रूप बदलवे हैं । ब्रजभाषा में विकार अवधी का सा होता है, खड़ी बोली का सा नहीं। खड़ी अवधी व्रज मैं,-तू-वह। मैं-तें -वह, सा, ऊ। मैं-तू या तें-वह, सो। मुझ-तुझ-उस । मो-तो-वा, ता, ओ। मो-तो-वा, ता । ७
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