पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/३५

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T -- , , . हो गए, उसमें 'काहि को' 'जाहि का' आदि के स्थान पर 'काको 'जाको' आदि का प्रयोग बहुत दिनों से है । यह उस आषा के अधिक चलतपन का प्रमाण है। बड़ी बोली में मर्व- नामों (जैसे, मुझे, तुझे, हमें, मेरा, तुम्हारा, हमारा ) को छोड़ विभक्ति से मिले हुए सिद्ध रूप व्यक्त नहीं है, पर अवधी और व्रजभाषा में हैं जैसे पुराना रूप रामहि', 'बनहि घरहि नए रूप 'रामैं' 'बनै घरै ( अर्थात् रामको, बनको, घरको ); अवधी या पूरबी "घरे" = घर में। जैसा पहले कहा जा चुका है व्रज की चलती बोली से पदांत के 'ह' को निकले बहुत दिन हुए । ब्रजभाषा की कविता में रामहिं', 'प्रावहिः 'जाहि' 'करहिं' 'करहु' आदि जो रूप देखे जाते हैं वे पुरानी परंपरा के अनुसरण मात्र खड़ी बोली के समान कुछ सर्वनामा में )जाहि, वाहि, तिन्हैं, जिन्हैं, ) यह 'ह' रह गया है। चलती भाषा मे 'राम', 'बनै', 'पावै, 'जायँ,' करें ,, 'करी' ही बहुत दिनों से-जब से प्राकृत-काल का अंत हुआ तब से-हैं। सूरदास में ये ही रूप बहुत मिलते हैं। कविता में नए पुराने दोनों रूपों का साथ साथ पाया जाना केवल परंपरा का निर्वाह ही नहीं कवियों का आलस्य और भाषा की उतनी परवा न करना भी सूचित करता है। 'आ4', 'चलावै, के स्थान पर 'प्रावहिँ', 'चलावहिँ' क्या 'आवहीं', 'चलावहीं' तक लिखे जाने से भाषा की सफ़ाई जाती रही । शब्दों का अंगभंग करने का .