गोस्वामी तुलसीदास जी 'लावा' और 'उघला' के स्थान पर 'लाई और 'उघली' लिखते । गोस्वामी जी साहित्य के पंडित थे और उनका परंपरागत काव्यभाषा से अधिक संबंध था इससे उन्होंने जहा क्रिया का पुरुषोंदवर्जिन पच्छिमा रूप लिया वहाँ उस नियमानुमार कम के लिंग वचन के बंधन में रखा पर जायसी बंचार से वहाँ भी कहीं कहीं अवधीपन रह ही गया । तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को छोड़ अपने और सब ग्रंथ प्रायः देश की सर्वमान्य काव्यभाषा बज- भाषा में ही लिखे यद्यपि उनमें भी जगह जगह अपनी मातृ- भाषा अवधी के शब्द (जैसे विनयपत्रिका में राटी लूगा') वे बिना लाए न रह सके। साहित्य के संस्कार के कारण ही रामचरित-मानस में भी कहीं इधर उधर ब्रजभाषा की झलक दिखाई पड़ जाती है- (क) अस कहि चरण गहे वैदही ( कर्म के अनुरूप बहु व० क्रिया) (ख) सुमन पाय मुनि पूजा कीन्हीं ( कर्म के अनुसार स्त्री० क्रिया) (ग) जनक विजय तिन्ह आनि सुनाई (वही) (घ) मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की (पच्छिमी संबंध- चिह्न) (च) अगम सनेह भरत रघुवर दा(ब्रज का संबंधचिह्न) (छ) बंदउँ राम नाम रघुबर का (वही)
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