पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/५४

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(४५) (ज) मन जाहि राचेउ मिलेउ सो वर सहज सुन्दर साँवरो (ब्रज का ओकारांत ) (झ) बध्यो चहत यहि कृपानिधाना (ब्रज का ओका- रांत कृदंत) अवधी में क्रिया का रूप सदा कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होता है । सकर्मक भूतकालिक क्रियाओं के रूप भी कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार नियत होते हैं- उत्तम पुरुष एक वचन-“मैं” ( क ) जानेउँ मरम राउ हसि कहई-तुलसी बहु व० "हम" ( ख ) अब भा मरन सत्य हम जाना-तुलसी मध्यम पुरुष एक व० 'तै, (क) प्रथमहिं कस न जगा- यसि पाई। तुलसी बहु व० 'तुम या तूं' (ख) देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेह । तुलसी प्रथम पुरुष एक व० 'ऊ' या 'वह' ( क ) प्रगटेसि तुरत रुचिर ऋतुराजा। बहु व. 'वै या 'तिन (ख) जात पवनसुत देवन देखा। जानइ कहँ बल बुद्धि बिसेखा ॥ सुरसा नाम अहिन के माता । पठइन; आइ कही तेइ बाता ॥ " u