पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/५९

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, 7 प्राज्ञा और विधि में जहा खड़ी बाली में क्रिया का साधारण रूप आता है ( जैसे, तुम आना ) वहाँ अवधी में धातु में 'यो' लगता है, व्रजभाषा के समान 'इयो' नहीं-जैसे, तुम (या तू) आयो, जाया, कह्या, दिह्यो, चल्या इत्यादि । अवधी भाषा के काव्यों पर टीका लिखने का प्रयत्न उन्हीं लोगों को करना चाहिए जो उसके स्वरूप को पहचानते हैं और उसके शब्दों से परिचित हैं नहीं तो "गटी लूगा" (= रोटी कपड़ा, पंजा० लुंगी, राज० लुगड़ी लुगड़ा) का अर्थ "रोटी लूँगा” लिखने की नौबत आ जाती है । अवधी काव्य की परंपरा बहुत पुरानी है पर अवधी वैसी व्यापक काव्य- भाषा न बन सकी जैसी ब्रज । आख्यान-काव्य लिखने में जो सफलता अवधी के कवियों को हुई है वह व्रजभाषा के कवियों को नहीं। रामचरितमानस और पद्मावत ये दो काव्य तो बहुत प्रसिद्ध हैं पर इनके पहले के और पीछे के काव्य भी है-जैसे, मधुमालती, चित्रावली, इंद्रावती, मृगावती । रहीम का बरवै नायिकाभेद भी ठेठ अवधी में है। कवीर की भाषा मिलीजुली होने पर भी अधिकांश पूरबी ही है। अयोध्या के आस पास की पूरबी या शुद्ध अवधी का नमूना देखना हो तो बाबा रघुनाथदास का विश्रामसागर देखना चाहिए । अवधी और ब्रजभाषा के बीच जो थोड़े से भेद दिखाए गए वे पहचान के लिए बहुत हैं। इनके सहारे हम देख सकते हैं कि किस कवि ने भाषा के जीते जागते रूप को पहचान कर