पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/६७

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(२)

वाही निशि शुद्धोदन नृप की रानी माया
सोई पति ढिग लखी स्वप्न में अद्भुत छाया।
देख्यो सपने में प्रवालद्युति निर्मल तारो,
दीप्तिमान षड् अंशु धरे अतिशय उजियारो,
नभ मंडल तें छूटि तासु ढिग दमकत आयो
औ दहिनी दिशि आय गर्भ में तासु समायो,
जासोँ लक्षित भयो एक मातंग मनोहर
षड् दंतन सो युक्त छीर सम श्वेत कांतिधर।
जागी जब आनंद अलौकिक उर में छायो
ऐसा जैसो काहु जननि ने कबहुँ न पायो।

पूर्व ही प्रभात के प्रभा पुनीत जो छई
अर्द्धमंडलांत भूमि भासमान ह्वै गई।
काँपिगे पहार, सिंधुनीर धीरता गही;
फूल भानु पाय जो खिलैं, खिले अकाल ही।

मोद की तरंग प्रेतलोक लौं गई बढ़ी,
भानुज्योति अंधकार भेदि जाति ज्यों चढ़ी।
मंजु घोष होत "जीव होयँ जे जहाँ बहे
आस के उठैं सुनैं, पधारि बुद्ध हैँ रहे"।

लोक लोक में गई अपार शांति छाय है,
फूलि ते रहे उमंग ना हिये समाय है।