पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/६८

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(३)

भूमि औ पयोधि पै समीर धीर जो बह्यो
और ही रह्यो कछू, न जात काहु पै कह्यो।

भयो ज्यों ही भोर बहु दैवज्ञ बूढ़े आय
लगे भाखन स्वप्न को फल भूप सों हरखाय-
"कर्क बीच दिनेश हैं सब योग शुभ या काल
स्वप्न को फल परम सुंदर होयहै, नरपाल!

श्री महादेवी जायहैं सुत ज्ञानवान् अपार
जो साधिहै या जगत् के सब जीव को उपकार,
अज्ञान तें उद्घारिहै जो सकल मनुज-समाज,
ना तो सकल जग शासिहै जो करन चहिहै राज।"



गर्भ पूज्यो; उठी माया हृदय यह बात
देवदह चलि पिता के घर लखौँ शिशु नवजात।
है गयो मध्याह्न ताको लुंबिनीबन जात
बालतरु तर एक ठाढ़ी भई पुलकित गात।

शिखर सम सो खरो सूधी विटप परम विशाल
नवल किशलय धरे, सुरभित-सुमन-मंडित भाल।
बुद्ध को आगमन ज्यों सब वस्तु रहीं जनाय
पर्यो आगम जानि बाहू को, उठ्यो लहराय।