पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/७६

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करत श्री भगवान गुरुजन को सदा सम्मान;
वचन कहत विनीत यद्यपि परम ज्ञाननिधान।
राजतेज लखात मुख पै, तदपि मृदु व्यवहार;
हृदय परम सुशील कोमल, यदपि शूर अपार।

कबहुँ जात अहेर को जब सखा लै सँग माहिँ
साहसी असवार तिन सम कोउ निकसत नाहिँ।
राजभवन समीप कबहूँ होड़ जो लगि जाय
रथ चलावन माहिँ कोऊ तिन्हैं सकत न पाय।

करत रहत अहेर सहसा ठिठकि जात कुमार;
जान देत कुरंग को भजि, लगत करन विचार।
कबहुँ जब घुरदौर में हय हाँफि छाँड़त साँस,
हार अपनी हेरि वा जब सखा होत उदास,

लगत कोऊ बात अथवा गुनन मन में आनि
जीति आधी कुँवर बाजी खोय देतो जानि।
बढ़त ज्यौँ ज्यौँ गयो प्रभु को वयस् लहि दिन राति
बढ़ति दिन दिन गई तिनकी दया याही भाँति।

यथा कोमन्त पात द्वै तें होत विटप विशाल,
करत छाया दूर लौं बहु जो गए कछु काल।
किंतु जानत नाहिँ अब लौं रह्यो राजकुमार
क्लेश, पीड़ा, शोक काको कहत है संसार।