पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/७५

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सात अणुन को योग एक केशाग्र कहावत,
जो दस मिलि कै लिख्या की हैं संज्ञा पावत।
दस लिख्या को एक यूक सब मानत आवैं।
दस यूकन को एक यवोदर सबै बतावैं।
दस जौ जोरे होत एक अंगुल यौँ मानत।
बारह अंगुल को वितस्त सिगरो जग जानत।
ताके आगे हस्त, दंड, धनु, लट्ठा आवैं।
लट्ठन को लै बीस श्वास दूरी ठहरावैं।
तेती दूरी श्वास होति जेती के बाहर
एक साँस में चलो जाय बिनु थमे कोउ नर।
चालिस श्वासन की दूरी को गो ठहरावत।
होत चार गो को योजन यह सबै बतावत।
यदि आयसु तव होय कहाँ अब मैँ, हे गुरुवर!
केते अणु अँटि सकत एक योजन के भीतर।"
यों कहि तुरत कुमार दियो अणुयोग बताई।
सुनतहि विश्वामित्र परे चरनन पै जाई।
बोले मुनि "तू सकल गुरुन को गुरु जग माहीं।
तू मेरो गुरु, मैं तेरो गुरु निश्चय नाहीं।
बंदत हौँ, सर्वज्ञ कुँवर! तेरो पद पावन;
मम चटसारहिँ आयो तू केवल दरसावन-
बिनु पोथिन ही सकल तत्त्व तू आपहि छानत;
तापै गुरुजन को आदर हू पूरो जानत।"