कबहुँ कबहुँ पै छाय जाति चिंता चित माहीँ:
मानस-जल झँवराय पाय ज्यों बादर छाहीँ।
देखि लक्षण यं महीपति को सचिव बुलाय-
"ध्यान है जो कहि गए ऋपि औ गणकगण आय?
प्राण तें प्रिय पुत्र यह जग जाति करिहै राज
सकल अरिदल दलि कहैहै महाराजधिराज।
नाहिँ तो पुनि भटकिहै तप के कठिन पथ माहिँ:
खोय सर्वस पायहै सो कहा जानै नाहिं।
लखत तासु प्रवृत्ति हम या ओर ही अधिकाय
विज्ञ हो तुम देहु मोकाँ मंत्र सोइ बताय
उच्च पथ पग धरै जासाँ कुँवर सजि सुरव साज;
घटैं लक्षण सत्य सब, सो करै भूनल राज"।
रह्यो जो अति श्रेष्ठ बोल्यो बचन सीस नवाय
"प्रेम है सो वस्तु जो यह रोग देय छुड़ाय।
कुँवर के या परम भोरे हृदय पै, नरराय!
तियन के छल छंद को चट देहु जाल बिछाय!
रूप को रस कहा जानै अबै कुँवर अजान,
चपल चख चित मथनहार, अधर सुधा समान।
देह वाको कामिनी करि चतुर सहचर साथ;
फेरि देखौ रंग अपने कुँवर को, हे नाथ
!