पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

द्वितीय सर्ग


राजा की चिंता

वर्ष अठारह पार भए भगवान बुद्ध जब
तीन भवन बनिबे की आज्ञा नृपति दई तब-
बनै एक तो देवदार सों मढ़ो भव्य अति
शीतकाल मेँ होय शीत की नहिं जामैं गति;
बनै श्वेत मर्मर को दूजो दमकत उज्वल,
ग्रीष्मकाल मे बास-जोग सुथरो औ शीतल;
लाल ईंट को बनै तीसरो भवन मनोहर,
पावस ऋतु के हेतु खिलें चंपक जब सुंदर।
तीन हर्म्य ये-शुभ्र, रम्य तीजो सुरम्य पुनि-
राजकुमार निमित्त भए निर्मित तहँ चुनि चुनि।
तिनके चारों ओर खिले उपवन मन मोहत,
नारे घूमत बहत, बिटप वीरुध बहु सोहत।
सघन हरियरी माहिँ लतामंडप बहु छाए,
जिनमेँ कबहूँ कुँवर जाय बैठत मन भाए।
नव प्रमोद प्रामोद ताहि बिलमावत छिन छिन;
पाय तरुण वय रहत सदा सुख सोँ बितवत दिन।