पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/८८

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(२४)

काके ऊपर कुँवर आपनी दीठि गड़ावै,
काकी चितवन मिले उदासी मुख की जावै।
चुनै प्रेम के नयन प्रेयसी आपहि जाई।
रसबस करि कै कुँवरहि हम योँ सकत भुलाई।"
भली लगी यह बात, युक्ति सब के मन भाई।
तुरत राज्य मे नरपति ने डौंड़ी फिरवाई-
"राजभवन में आवैं सुंदरि सकल कुमारी;
है 'अशोक उत्सव' की कीनी नृपति तयारी।
निज कर सो उपहार बाटिहैं श्रीकुमार कढ़ि;
पैहै वस्तु अमात निकसिहै जो सब सोँ बढ़ि।"


प्रेम

नृपद्वार कुमारि चली पुर की, अँगराग सुगंध उड़ै गहरी,
सजि भूषण अंबर रंग विरंग, उमंगन से मन माहिँ भरी।
कबरीन मैँ मंजु प्रसून गुळे, दृगकोरन काजर-लीक परी,
सित भाल पै रोचनविदु लसै; पग जावक-रेख रची उछरी।


चलि कुँवर आसन पास सोँ मृदु मंद गति सोँ नागरी
हैँ कढ़ति कारे दीर्घ नयन नवाय भारी छवि भरी।
बढ़ि राजतेजहु सोँ कछू तहँ हेरि ते हहरैं हिये
जहँ लसत कुँवर विराग को मृदु भाव आनन पै लिये।