पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/८९

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जो निकसै अति रूपवती, सब लोग सराहत जाहि दिखाय
सो चकि कै हरिनी सी खड़ी चट होय कुमार के सम्मुख आय-
दिव्य स्वरूप, महामुनि सो सब भाँति अलौकिक जो दरसाय-
लै अपनो उपहार मिलै पुनि कंपित-गात सखीन में जाय।

पुर की कुमारी एक पै चलि एक याँ पलटीँ जबै,
टूट्यो छटा को तार नौ उपहार हू बँटिगो सबै
ठाढ़ी भई तब आय कुँवर समीप दिव्य यशोधरा।
अति चकित हेरत रहि गयो सो स्वर्ग की सी अप्सरा।

मृदु आनन पै लखि इंदुप्रभा अरविंद सबै सकुचाय परे।
शर हेरि प्रसून के नैनन में हरिनीन के नैनहु ना ठहरे।
पुनि जोरि कुमार साँ दीठि चितै मुसकान कछू अधरान धरे
"कछु पाय सकै हमहूँ" यह पूछति भौहँन में कछु भाव भरे।

सुनि कहत राजकुमार "अब उपहार तो सब बँटि गयो;
पै देत हौँ जो नाहिं अब लौं और काहू को दयो"।
चट काढ़ि मरकत माल वाके कंठ में नाई हरी;
तहँ नयन दोउन के मिले जिय प्रीति जासाँ जगि परी।



बहुत दिनन में भए बुद्ध-पद-प्राप्त कुँवर जब
बिनती करि बहु लोग जाय तिनसों पूछयो तब