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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/९९

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(३५)

कंठ को गहि पानि फेर्यो पीठ लौँ लै जाय।
चकित भे सब लोग लखि जब अश्व सीस नवाय
भयो ठाढ़ो सहमि के चुपचाप तहँ बस मानि;
मनो बंदन करन लाग्यो परम प्रभु पहिचानि।

नाहिं डोल्यो हिल्यो जा छन कुँवर भी असवार
चल्यो सीधे एड़ औ बगडोर के अनुसार।
उठे लोग पुकारि "बस, अब! इन कुमारन माहिं
है कुँवर सिद्धार्थ सब साँ श्रेष्ठ संशय नाहिं"।




विवाह


सुप्रबुद्ध अति ह्वै प्रसन्न लखि कौतुक सारे
बोले "तुम, हे कुँवर! रहे हम सब को प्यारे।
सब सोँ बढ़ि तुम कढ़ौ रही यह चाह हमारी।
कौन शक्ति लहि कियो आज यह अचरज भारी?
कहत सबै तुम रहत रंग में भूले अपने,
फूलन पै फैलाय पाँव देखत हौ सपने।
यह अद्भुत पुरुषार्थ कहाँ तेँ तुम में आयो
तिनसोँ बढ़ि जो अपनो सारो समय बितायो
रणखेतन के बीच और आखेटवनन में,
सकल जगत् के व्यवहारन में कुशल जनन में?